CCSU B.ED Second Year Notes Gender, School and Society Important Questions | E-302
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प्रश्न 1. लिंग का अर्थ बताइये।
उत्तर-लिंग जिससे कि किसी के स्त्री अथवा पुरुष होने का बोध हो उसे लिंग कहते हैं।
प्रश्न 2. लिंगीय विभेद से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-लिंगीय विभेद से तात्पर्य है बालक तथा बालिकाओं के मध्य व्याप्त लैंगिक असमानता से है।
लिंगीय विभेद : बालक तथा बालिकाओं के मध्य व्याप्त लैंगिक असमानता।
बालक तथा बालिकाओं में उनके लिंग के आधार पर भेद करना जिसके कारण बालिकाओं को समाज में शिक्षा तथा पालन-पोषण में बालकों से निम्नतर स्थिति मे देखा जाता है, जिससे वे पिछड़ जाती हैं। बालक तथा बालिकाओं में विभेद उनके लिंग को लेकर किया जाता है।
विभेद के प्रकार (Types of Bias)
(1) आर्थिक विभेद ,
(2) सांस्कृतिक विभेद,
(3) लिंगी विभेद,
(4) भाषायी विभेद,
(5) रंगरूप विभेद,
(6) प्रजातीय विभेद,
(7) जातिगत विभेद,
(8) स्थानगत विभेद।
लिंगीय विभेद के कारण बालिकाओं को भ्रूणावस्था में ही समाप्त कर दिया जाता है तथा जन्म के पश्चात् भी बालिकाओं को आजीवन लैंगिक विभेद का सामना करना पड़ता है।
लिंगीय विभेद के कारणों को निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
(1) संकीर्ण विचारधारा– बालक-बालिका में भेद का एक कारण लोगों की संकीर्ण विचारधारा है। लड़के माता-पिता के बुढ़ाने का सहारा बनेगे, वंश चलाएंगे, उन्हें पढ़ा-लिखाकर घर की उन्नति होगी, वहीं लड़की के पैदा होने पर शोक का माहौल होता है, क्योंकि उसके लिए दहेज देना होगा। विवाह के लिए वर ढूँढना होगा, और तब तक सुरक्षा प्रदान करनी होगी तथा पढ़ाने-लिखाने में पैसा खर्च करना लोग बर्बादी समझते हैं।
(2) अशिक्षा- लैंगिक विभेद में अशिक्षा की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। अशिक्षित व्यक्ति, परिवारों तथा समाजों में चले आ रहे मिथकों और अन्धविश्वासों पर ही लोग कायम रहते हैं तथा बिना सोचे-समझे उनका पालन करते रहते हैं। परिणामतः लड़के का महत्त्व लड़की की अपेक्षा सर्वोपरि मानते हैं। सभी वस्तुओं तथा सुविधाओं पर प्रथम अधिकार बालकों को प्रदान किया जाता है।
(3) जागरूकता का अभाव- जागरूकता के अभाव मे लैंगिक भेदभाव उपजता है। समाज में अभी भी लैंगिक मुद्दों पर जागरूकता की कमी है, जिसके कारण बालक-बालिकाओं की देखरेख, शिक्षा तथा पोषणादि स्तरों पर भेदभाव किया जाता है, वही जागरूक समाज में 'बेटा-बेटी एकसमान' के मंत्र का अनुसरण करते हुए बेटियों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा स्त्रियों की भाँति प्रदान की जाती है। जागरूकता के अभाव में माना जाता है कि स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के भीतर तक ही सीमित है। अत: उनकी शिक्षा तथा पालन- पोषण पर व्यय नहीं किया जाना चाहिए और बौद्धिक रूप से भी वे लड़कों की अपेक्षा कमजोर होती हैं। लैंगिक भेदभाव के कारण बालिकाओं के विकास का उचित प्रबन्ध नहीं किया जाता है। अत: बालकों को बालिकाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है।
(4) मान्यताएँ तथा परम्पराएँ- लिंगीय विभेद का एक प्रमुख कारण भारतीय मान्यताओं तथा परम्पराओं का है। यहाँ श्राद्ध और पिण्डादि कार्य पुत्र के हाथ से कराने की मान्यता रही है। स्त्रियों को चिता को अग्नि देने का अधिकार भी नहीं दिया गया है, जिसके कारण भी पुत्र सम्पन्न को महत्त्व दिया जाता है और वंश को चलाने में भी पुरुष को ही प्रधान माना गया है और कहीं-कहीं तो बालिकाओं की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। अधिकांश बालिकाओं को भी बोझ समझकर ही उनका पालन-पोषण किया जाता है तथा सदैव इन्हें पुरुषों की छत्रछाया में जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इस प्रकार स्त्रियों को मान्यताओं और परम्पराओं की बलि चढ़ा दिया जाता है।
(5) आर्थिक तंगी-भारतवर्ष में आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवारों की संख्या अधिक है। ऐसे में वे बालिकाओं की अपेक्षा बालकों को सन्तान के रूप में प्राथमिकता देते हैं जिससे वे उनके श्रम में हाथ बँटाएँ और आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ बाँटने का कार्य करें। माता-पिता लड़कियों को पराया धनसमझकर रखते हैं तथा जीवन की कमाई का एक बड़ा भाग वे लड़की के विवाह में दहेज के रूप में व्यय करते हैं तथा लड़के के साथ ऐसा नहीं करना पड़ता है। इस प्रकार आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवारों में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की कामना की जाती है, जिससे लैंगिक विभेद पनपता है।
(6) सरकारी उदासीनता-लिंगीय विभेद बढ़ने में सरकारी उदासीनता भी एक कारक है। सरकार लिंग में भेदभाव करने वालों के साथ सख्त कार्यवाही नहीं करती है और चोरी-छुपे चिकित्सालयों और क्लीनिक पर भ्रूण की जाँच तथा कन्या भ्रूण हत्या का कार्य अवैध रूप से चल रहा है।
(8) सामाजिक प्रथा-भारतीय समाज सूचना और तकनीकी के इस युग में तमाम प्रकार की कुप्रथाएँ और अंधविश्वास से भरा हुआ है। भारतीय समाज की कुछ प्रथाएं निम्न प्रकार हैं
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उत्तर-लिंग जिससे कि किसी के स्त्री अथवा पुरुष होने का बोध हो उसे लिंग कहते हैं।
प्रश्न 2. लिंगीय विभेद से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-लिंगीय विभेद से तात्पर्य है बालक तथा बालिकाओं के मध्य व्याप्त लैंगिक असमानता से है।
लिंगीय विभेद
बालक तथा बालिकाओं में उनके लिंग के आधार पर भेद करना जिसके कारण बालिकाओं को समाज में शिक्षा तथा पालन-पोषण में बालकों से निम्नतर स्थिति मे देखा जाता है, जिससे वे पिछड़ जाती हैं। बालक तथा बालिकाओं में विभेद उनके लिंग को लेकर किया जाता है।
विभेद के प्रकार (Types of Bias)
(1) आर्थिक विभेद ,
(2) सांस्कृतिक विभेद,
(3) लिंगी विभेद,
(4) भाषायी विभेद,
(5) रंगरूप विभेद,
(6) प्रजातीय विभेद,
(7) जातिगत विभेद,
(8) स्थानगत विभेद।
लिंगीय विभेद के कारण बालिकाओं को भ्रूणावस्था में ही समाप्त कर दिया जाता है तथा जन्म के पश्चात् भी बालिकाओं को आजीवन लैंगिक विभेद का सामना करना पड़ता है।
लिंगीय विभेद के कारणों को निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
(2) अशिक्षा- लैंगिक विभेद में अशिक्षा की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। अशिक्षित व्यक्ति, परिवारों तथा समाजों में चले आ रहे मिथकों और अन्धविश्वासों पर ही लोग कायम रहते हैं तथा बिना सोचे-समझे उनका पालन करते रहते हैं। परिणामतः लड़के का महत्त्व लड़की की अपेक्षा सर्वोपरि मानते हैं। सभी वस्तुओं तथा सुविधाओं पर प्रथम अधिकार बालकों को प्रदान किया जाता है।
(3) जागरूकता का अभाव- जागरूकता के अभाव मे लैंगिक भेदभाव उपजता है। समाज में अभी भी लैंगिक मुद्दों पर जागरूकता की कमी है, जिसके कारण बालक-बालिकाओं की देखरेख, शिक्षा तथा पोषणादि स्तरों पर भेदभाव किया जाता है, वही जागरूक समाज में 'बेटा-बेटी एकसमान' के मंत्र का अनुसरण करते हुए बेटियों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा स्त्रियों की भाँति प्रदान की जाती है। जागरूकता के अभाव में माना जाता है कि स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के भीतर तक ही सीमित है। अत: उनकी शिक्षा तथा पालन- पोषण पर व्यय नहीं किया जाना चाहिए और बौद्धिक रूप से भी वे लड़कों की अपेक्षा कमजोर होती हैं। लैंगिक भेदभाव के कारण बालिकाओं के विकास का उचित प्रबन्ध नहीं किया जाता है। अत: बालकों को बालिकाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है।
(4) मान्यताएँ तथा परम्पराएँ- लिंगीय विभेद का एक प्रमुख कारण भारतीय मान्यताओं तथा परम्पराओं का है। यहाँ श्राद्ध और पिण्डादि कार्य पुत्र के हाथ से कराने की मान्यता रही है। स्त्रियों को चिता को अग्नि देने का अधिकार भी नहीं दिया गया है, जिसके कारण भी पुत्र सम्पन्न को महत्त्व दिया जाता है और वंश को चलाने में भी पुरुष को ही प्रधान माना गया है और कहीं-कहीं तो बालिकाओं की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। अधिकांश बालिकाओं को भी बोझ समझकर ही उनका पालन-पोषण किया जाता है तथा सदैव इन्हें पुरुषों की छत्रछाया में जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इस प्रकार स्त्रियों को मान्यताओं और परम्पराओं की बलि चढ़ा दिया जाता है।
(5) आर्थिक तंगी-भारतवर्ष में आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवारों की संख्या अधिक है। ऐसे में वे बालिकाओं की अपेक्षा बालकों को सन्तान के रूप में प्राथमिकता देते हैं जिससे वे उनके श्रम में हाथ बँटाएँ और आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ बाँटने का कार्य करें। माता-पिता लड़कियों को पराया धनसमझकर रखते हैं तथा जीवन की कमाई का एक बड़ा भाग वे लड़की के विवाह में दहेज के रूप में व्यय करते हैं तथा लड़के के साथ ऐसा नहीं करना पड़ता है। इस प्रकार आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवारों में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की कामना की जाती है, जिससे लैंगिक विभेद पनपता है।
(6) सरकारी उदासीनता-लिंगीय विभेद बढ़ने में सरकारी उदासीनता भी एक कारक है। सरकार लिंग में भेदभाव करने वालों के साथ सख्त कार्यवाही नहीं करती है और चोरी-छुपे चिकित्सालयों और क्लीनिक पर भ्रूण की जाँच तथा कन्या भ्रूण हत्या का कार्य अवैध रूप से चल रहा है।
(8) सामाजिक प्रथा-भारतीय समाज सूचना और तकनीकी के इस युग में तमाम प्रकार की कुप्रथाएँ और अंधविश्वास से भरा हुआ है। भारतीय समाज की कुछ प्रथाएं निम्न प्रकार हैं
- दहेज प्रथा
- पर्दा-प्रथा
- कन्या-भ्रूणहत्या
- बाल-विवाह
- विधवा विवाह निषेधा
जाति और वर्ग में भेद (Distinction between Caste and Class)
जाति (Caste)
| वर्ग (Class) |
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1.जाति एक बंद समूह है।
2.जन्म पर आधारित है। 3.व्यवसाय परम्परा से संतान को मिलता है। 4. व्यक्तियों को अवसरों का उपयोग करने की आशा नहीं होती। 6. जाति प्रथा स्थिर संगठन है। 7.विवाह, खान-पान आदि के कठोर नियम होते हैं। 8.सामाजिक दूरी सदैव एक-सी रहती है। सामाजिक वर्गों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है। |
1.सामाजिक स्थिति पर आधारित है।
2.व्यावसायिक कार्य के सम्बन्ध में कठोरता सम्भव नहीं है। व्यक्ति अवसरों का उपयोग कर सकता है। 3. व्यक्तिगत गुणों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 4.वर्ग एक खुला समूह है, व्यक्ति के प्रयास करने पर वर्ग बदल सकता है। 5.जाति प्रथा के मुकाबले कम स्थिर संगठन है। 6.वर्ग में इतनी कठोरता नहीं है। 8.प्रजातन्त्र और राष्ट्रवाद में बाधक नहीं है। |
मुदालियर-आयोग का गठन
सन् 1952 में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन के लिए ए० लक्षण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में मुदालियर आयोग का गठन किया गया। आयोग का मानना था कि माध्यमिक स्तर पर स्त्रियों तथा पुरुष दोनों की शिक्षा समान होनी चाहिए। स्त्री शिक्षा पुनर्गठन हेतु सुझा विषयी आयोग के मुख्य सुझाव अग्र प्रकार थे-
- बालिकाओं को विद्यालयों में पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।
- बालिकाओं के पाठ्यक्रम में गृहविज्ञान, शिल्प, गृह उद्योगों, संगीत एवं चित्रकारी को स्थान।
- सह शिक्षण संस्थाओं में महिला शिक्षकों की नियुक्ति का सुझाव.
- स्त्री तथा पुरुषों की समान शिक्षा की व्यवस्था।
इस प्रकार आयोग ने शिक्षा के द्वारा महिलाओं के सामाजिक तथा आर्थिक स्वावलम्बन में भूमिका निभायी।
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